कांशीराम जी का विस्तृत जीवन परिचय
कांशीराम एक ऐसे नेता थे जिन्होंने भारतीय राजनीति में बहुजन समाज (दलित,आदिवासी और अल्पसंख्यक वर्ग) को एक नई दिशा और शक्ति दी। उन्होंने अपने संघर्ष और आंदोलनों के माध्यम से यह सिद्ध किया कि बहुजन समाज भी सत्ता का हिस्सा बन सकता है और अपने अधिकारों के लिए लड़ सकता है।
1. जन्म, परिवार और जाति
जन्म: 15 मार्च 1934
स्थान: खवासपुर गांव, जिला रूपनगर (रोपड़), पंजाब
पिता का नाम: हरिया राम
माता का नाम: बिरो देवी
जाति: रामदासिया (अनुसूचित जाति)
धर्म: जन्म से सिख, पर बाद में बौद्ध धर्म अपनाया
वैवाहिक स्थिति: अविवाहित (उन्होंने आजीवन शादी नहीं की)
संतान: कोई नहीं
2. शिक्षा और प्रारंभिक जीवन
कांशीराम ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पंजाब में ही पूरी की और फिर गवर्नमेंट कॉलेज रोपड़ से बैचलर ऑफ साइंस (B.Sc.) की डिग्री प्राप्त की।
स्नातक की पढ़ाई के बाद उन्हें 1957 में रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) में नौकरी मिली और वे पुणे चले गए।
सरकारी नौकरी में जातिगत भेदभाव का सामना
पुणे में नौकरी के दौरान उन्होंने अनुसूचित जाति के कर्मचारियों के साथ भेदभाव होते देखा। इस घटना ने उनके जीवन को बदल दिया और उन्होंने सामाजिक परिवर्तन की दिशा में काम करने का संकल्प लिया।
3. सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष
कांशीराम जी ने बहुजन समाज को जागरूक और संगठित करने के लिए कई महत्वपूर्ण संगठनों की स्थापना की।
(1) BAMCEF (1978) - सामाजिक चेतना का आंदोलन
पूरा नाम: Backward and Minority Communities Employees Federation
स्थापना: 1978
उद्देश्य:
- सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में कार्यरत बहुजन समाज के कर्मचारियों को संगठित करना।
- सामाजिक और शैक्षिक जागरूकता फैलाना।
(2) दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (DS4) - 1981
स्थापना: 1981
उद्देश्य:
- आम जनता को सामाजिक और राजनीतिक रूप से जागरूक करना।
- गैर-सरकारी कर्मचारियों को भी बहुजन आंदोलन से जोड़ना।
- गरीबों और दलितों को संगठित कर सामाजिक न्याय दिलाना।
(3) बहुजन समाज पार्टी (BSP) - 14 अप्रैल 1984
स्थापना: 14 अप्रैल 1984 (डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती के दिन)
उद्देश्य:
- बहुजन समाज (दलित, पिछड़ा, आदिवासी, अल्पसंख्यक) को सत्ता में भागीदारी दिलाना।
- सामाजिक और राजनीतिक समानता स्थापित करना।
- हिंदू धर्म की वर्ण व्यवस्था को चुनौती देना।
4. हिंदू धर्म और जाति व्यवस्था पर विचार
- कांशीराम ने हिंदू धर्म की जाति व्यवस्था की कड़ी आलोचना की।
- वे मानते थे कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था के कारण दलित और पिछड़े वर्गों का शोषण हुआ।
- वे कहते थे कि "हिंदू धर्म में शूद्रों और दलितों के लिए कोई स्थान नहीं है, इसलिए उन्हें अपनी स्वतंत्र पहचान बनानी चाहिए।"
- उन्होंने डॉ. अंबेडकर के नक्शे कदम पर चलते हुए बौद्ध धर्म को अपनाने की वकालत की।
- उनका अंतिम संस्कार भी बौद्ध रीति से किया गया।
5. चुनावी राजनीति और प्रमुख उपलब्धियां
पहली बार चुनावी मैदान में
- 1989 में कांशीराम ने इलाहाबाद लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए।
- 1991 में इटावा लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में BSP का उदय
- 1993 में BSP और समाजवादी पार्टी (सपा) के गठबंधन से सरकार बनी और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने।
- 1995 में BSP ने पहली बार उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई और मायावती पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनीं।
- 2007 में BSP ने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई और मायावती फिर से मुख्यमंत्री बनीं।
6. कांशीराम जी की विचारधारा और नारे
कांशीराम जी ने दलित समाज को संगठित करने के लिए कई महत्वपूर्ण नारे दिए:
- "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी"
- "हम पहले समाज को जीतेंगे, फिर सत्ता को जीतेंगे"
- "ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर छोड़, बाकी सब हैं DS4"
- "सत्ता की चाबी बहुजन समाज के हाथ में होनी चाहिए"
7. संपत्ति और जीवनशैली
- वे सादा जीवन जीते थे और समाज के दबे-कुचले वर्गों के लिए काम करते रहे।
- उन्होंने अपनी पूरी राजनीतिक विरासत मायावती को सौंप दी।
8. बीमारी और निधन
- 1996 के बाद कांशीराम जी की सेहत बिगड़ने लगी।
- 2003 में उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया और BSP की पूरी जिम्मेदारी मायावती को सौंप दी।
- 9 अक्टूबर 2006 को उनका निधन हो गया।
- उनके अंतिम संस्कार में लाखों समर्थक शामिल हुए और उनका अंतिम संस्कार बौद्ध रीति से किया गया।
9. कांशीराम जी की विरासत
- कांशीराम जी ने बहुजन समाज को जागरूक किया और सत्ता में भागीदारी दिलाई।
- उनके आंदोलन के कारण भारत में कई दलित मुख्यमंत्री बने, खासकर उत्तर प्रदेश में।
- उन्होंने बहुजन समाज पार्टी (BSP) के रूप में एक स्थायी राजनीतिक दल स्थापित किया, जो आज भी दलित राजनीति की सबसे मजबूत पार्टी मानी जाती है।
- उनका संघर्ष आज भी भारत में दलित राजनीति के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था का विकास धीरे-धीरे हुआ, यह कोई एक दिन में बनी हुई प्रणाली नहीं थी। अगर हम इतिहास को देखें, तो शुरूआती वैदिक काल में "जाति" जैसी कोई कठोर व्यवस्था नहीं थी, बल्कि समाज को कर्म और गुणों के आधार पर वर्गीकृत किया जाता था।
1. क्या प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था थी?
नहीं, प्राचीन वैदिक काल (1500-1000 ईसा पूर्व) में जाति व्यवस्था आज जैसी कठोर नहीं थी। समाज को मुख्य रूप से कर्म और योग्यता के आधार पर चार "वर्णों" में बांटा गया था:
- ब्राह्मण (पुजारी, शिक्षक, विद्वान)
- क्षत्रिय (योद्धा, राजा, शासक)
- वैश्य (व्यापारी, कृषक)
- शूद्र (सेवक, श्रमिक)
2. जाति व्यवस्था आई कहां से?
जाति व्यवस्था धीरे-धीरे विकसित हुई और समय के साथ कठोर होती गई। इसके पीछे कई कारण थे:
(1) धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या और बदलाव
- ऋग्वेद (1500-1000 ईसा पूर्व) में कर्म और गुणों के आधार पर वर्ण व्यवस्था थी, लेकिन जातियां स्थायी नहीं थीं।
- मनुस्मृति (200 ईसा पूर्व - 200 ईस्वी) में जातियों को जन्म से निर्धारित कर दिया गया और इसे कठोर बना दिया गया।
- जातियों का स्थान जन्म से तय कर दिया गया, जिससे सामाजिक गतिशीलता (social mobility) खत्म हो गई।
(2) विदेशी आक्रमण और शासन
- विदेशी आक्रमणों (यूनानी, शक, कुषाण, हूण) के कारण भारतीय समाज ने खुद को "शुद्ध" और "अशुद्ध" की धारणा से बांटना शुरू कर दिया।
- इन आक्रमणों के बाद समाज में नए समुदाय जुड़े, जिन्हें जातियों में विभाजित किया गया।
(3) आर्थिक और पेशेवर वर्गीकरण
- जैसे-जैसे समाज विकसित हुआ, लोगों ने अपने कार्यों के आधार पर जातीय पहचान बनानी शुरू कर दी।
- विभिन्न व्यवसायों को जातियों के रूप में संगठित किया गया, जैसे कि लोहार, कुम्हार, जुलाहा, बढ़ई आदि।
(4) विवाह और सामाजिक नियंत्रण
- अलग-अलग जातियों के बीच विवाह को प्रतिबंधित किया गया, जिससे जातियां स्थायी बन गईं।
- "जाति-शुद्धता" की धारणा के कारण ऊंची जातियों ने खुद को अलग रखा और सामाजिक भेदभाव बढ़ता गया।
(5) भौगोलिक और सांस्कृतिक प्रभाव
- भारत में अलग-अलग क्षेत्रों और समुदायों ने अपनी विशिष्ट जातीय पहचान बना ली।
- दक्षिण भारत में जाति व्यवस्था उत्तर भारत की तुलना में थोड़ी अलग थी, लेकिन वहां भी यह मौजूद थी।
3. क्या जाति व्यवस्था हमेशा से बुरी थी?
प्रारंभ में जाति व्यवस्था कर्म और गुणों के आधार पर थी, इसलिए यह ज्यादा कठोर नहीं थी।
लेकिन जब इसे जन्म-आधारित बना दिया गया, तब यह भेदभाव और शोषण का कारण बन गई।
- शूद्रों और अछूतों को शिक्षा और मंदिरों से वंचित कर दिया गया।
- ऊंची जातियों ने अपने विशेषाधिकार बनाए रखने के लिए इसे कठोर बना दिया।
4. जाति व्यवस्था का विरोध कब शुरू हुआ?
- महात्मा बुद्ध (6वीं शताब्दी ईसा पूर्व) ने जाति व्यवस्था का विरोध किया और समानता की बात की।
- डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 20वीं सदी में दलित समाज को अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष किया और बौद्ध धर्म अपनाया।
- 20वीं और 21वीं सदी में कई सामाजिक आंदोलनों के कारण जाति व्यवस्था कमजोर हुई, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हो सकी।
निष्कर्ष
जाति व्यवस्था का जन्म एक लचीली सामाजिक संरचना के रूप में हुआ था, लेकिन समय के साथ यह कठोर और शोषणकारी बन गई। आज यह व्यवस्था धीरे-धीरे कमजोर हो रही है, लेकिन अभी भी समाज में इसका प्रभाव बना हुआ है।
भारत में जाति व्यवस्था: उद्भव, विकास और प्रभाव
जाति व्यवस्था भारतीय समाज का एक प्रमुख अंग रही है, जिसका उद्भव प्राचीन काल से हुआ और यह धीरे-धीरे एक कठोर सामाजिक संरचना में बदल गई। भारतीय संस्कृति में जाति व्यवस्था का विकास धर्म, समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था से जुड़ा रहा है। इसे समझने के लिए हमें इसके ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को विस्तार से देखना होगा।
1. जाति व्यवस्था का प्राचीन उद्भव
(1) वैदिक काल (1500 ईसा पूर्व - 600 ईसा पूर्व)
- वैदिक काल में समाज को कर्म और गुणों के आधार पर चार वर्णों में विभाजित किया गया था:
- ब्राह्मण – वेदों के ज्ञाता, पुरोहित, शिक्षक और विद्वान।
- क्षत्रिय – योद्धा, राजा और प्रशासनिक अधिकारी।
- वैश्य – व्यापारी, किसान और आर्थिक कार्य करने वाले।
- शूद्र – सेवक, श्रमिक और सेवा प्रदान करने वाले।
- ऋग्वेद में वर्ण व्यवस्था को पुरुषसूक्त के माध्यम से वर्णित किया गया है, जिसमें समाज को एक शरीर की तरह समझाया गया:
- ब्राह्मण – मुख (ज्ञान और शिक्षा)
- क्षत्रिय – भुजाएं (शक्ति और शासन)
- वैश्य – जंघा (अर्थव्यवस्था और व्यापार)
- शूद्र – पैर (सेवा और श्रम)
📌 महत्वपूर्ण बिंदु:
- प्रारंभिक वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था लचीली थी और व्यक्ति अपने कर्मों के आधार पर वर्ण बदल सकता था।
- ऋषि वाल्मीकि (जो एक शूद्र थे) को महान ऋषि माना गया।
- महर्षि वेदव्यास, जिन्होंने महाभारत की रचना की, उनका जन्म मछुआरा समाज में हुआ था।
(2) उत्तर वैदिक काल (600 ईसा पूर्व - 200 ईसा पूर्व)
- इस काल में वर्ण व्यवस्था कठोर होने लगी।
- ब्राह्मणों ने धार्मिक ग्रंथों का संकलन किया और वर्ण व्यवस्था को धार्मिक मान्यता देने की कोशिश की।
- मनुस्मृति (200 ईसा पूर्व - 200 ईस्वी) में जाति को जन्म-आधारित बना दिया गया।
- शूद्रों को वेद पढ़ने की मनाही कर दी गई और उन पर कई सामाजिक प्रतिबंध लगाए गए।
- जातियों के बीच विवाह को निषिद्ध कर दिया गया (Endogamy)।
📌 महत्वपूर्ण बिंदु:
- इस काल में जाति व्यवस्था को धार्मिक और कानूनी रूप से लागू किया गया।
- "अस्पृश्यता" की अवधारणा इसी समय से शुरू हुई।
(3) महाजनपद और मौर्य काल (600 ईसा पूर्व - 200 ईसा पूर्व)
- महाजनपद काल में शूद्रों को समाज में कुछ हद तक सम्मान मिला।
- बुद्ध और महावीर ने जाति व्यवस्था का विरोध किया और समानता की बात की।
- मौर्य साम्राज्य (चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक) में जाति व्यवस्था थोड़ी कमजोर हुई क्योंकि प्रशासन में सभी जातियों को शामिल किया गया।
- अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया और जाति व्यवस्था को कमजोर करने का प्रयास किया।
📌 महत्वपूर्ण बिंदु:
- इस काल में बौद्ध और जैन धर्म के उदय से जाति व्यवस्था को चुनौती मिली।
- प्रशासन में सभी जातियों को अवसर मिले।
2. जाति व्यवस्था का मध्यकालीन विकास
(1) गुप्त काल (300 ईस्वी - 600 ईस्वी)
- इस काल में ब्राह्मणवाद का पुनरुत्थान हुआ और जाति व्यवस्था को फिर से मजबूत किया गया।
- वर्ण व्यवस्था को कठोरता से लागू किया गया।
- शूद्रों की स्थिति फिर से निम्न हो गई।
(2) भक्ति आंदोलन और जाति विरोध (700 ईस्वी - 1700 ईस्वी)
- रामानंद, कबीर, रविदास, गुरु नानक, तुकाराम आदि संतों ने जाति व्यवस्था का विरोध किया।
- भक्ति आंदोलन ने समाज के सभी वर्गों को जोड़ने का प्रयास किया।
- सिख धर्म ने जाति व्यवस्था को अस्वीकार कर दिया।
(3) मुस्लिम शासन और जाति व्यवस्था (1200 ईस्वी - 1700 ईस्वी)
- मुस्लिम शासन (दिल्ली सल्तनत, मुग़ल काल) में जाति व्यवस्था कमजोर नहीं हुई, बल्कि नई जातियों का उदय हुआ।
- हिंदुओं में जातीय प्रतिबंध जारी रहे, लेकिन इस्लाम ने कुछ दलितों को समानता का अवसर दिया।
- कुछ दलित और पिछड़े वर्गों ने इस्लाम धर्म अपनाया।
3. जाति व्यवस्था का औपनिवेशिक काल में परिवर्तन
(1) ब्रिटिश शासन (1757 - 1947)
- ब्रिटिश शासन में जनगणना (Census 1871) के आधार पर जातियों को आधिकारिक रूप से दर्ज किया गया।
- "जाति प्रमाण पत्र" की अवधारणा शुरू हुई।
- ब्राह्मणों को प्रशासन में अधिक अवसर दिए गए, जिससे जातीय असमानता और बढ़ी।
- अछूतों के लिए सुधार आंदोलन शुरू हुए – ज्योतिबा फुले, पेरियार, डॉ. अंबेडकर ने जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष किया।
4. आधुनिक भारत में जाति व्यवस्था और सामाजिक सुधार
(1) स्वतंत्रता संग्राम और जाति विरोध
- महात्मा गांधी ने "हरिजन" शब्द का प्रयोग कर दलितों को सम्मान देने का प्रयास किया।
- डॉ. भीमराव अंबेडकर ने दलितों के लिए आरक्षण की मांग की।
(2) भारतीय संविधान और जाति उन्मूलन
- संविधान (1950) में जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त कर दिया गया।
- अनुच्छेद 17 – अस्पृश्यता को गैरकानूनी घोषित किया गया।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण दिया गया।
(3) जाति आधारित राजनीति और सामाजिक बदलाव
- 1990 में मंडल आयोग ने पिछड़ी जातियों (OBC) को आरक्षण दिया।
- जाति के आधार पर राजनीतिक दलों का गठन हुआ (BSP, SP, DMK, आदि)।
- जाति व्यवस्था कमजोर हुई, लेकिन पूरी तरह समाप्त नहीं हुई।
5. निष्कर्ष
जाति व्यवस्था का जन्म कर्म और गुणों के आधार पर हुआ था, लेकिन समय के साथ यह जन्म-आधारित और शोषणकारी बन गई।
- प्राचीन काल में जाति लचीली थी।
- मध्यकाल में यह कठोर हुई।
- औपनिवेशिक काल में इसे सरकारी स्तर पर दर्ज किया गया।
- आधुनिक काल में इसे कानूनी रूप से समाप्त किया गया, लेकिन यह अभी भी समाज में मौजूद है।
📌 क्या जाति व्यवस्था पूरी तरह खत्म हो सकती है?
- जाति व्यवस्था आज भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली है।
- शिक्षा, सामाजिक जागरूकता और कानून के माध्यम से इसे कमजोर किया जा सकता है।
- डॉ. अंबेडकर ने कहा था: "शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो।"
📌 क्या जाति का कोई सकारात्मक पहलू भी है?
- परंपरागत रूप से जातियों ने विशिष्ट कौशल और व्यवसायों को संरक्षित किया।
- लेकिन आधुनिक समाज में जाति की जरूरत नहीं है, बल्कि योग्यता और समानता की जरूरत है।
📌 क्या जाति आधारित आरक्षण जरूरी है?
- जब तक सामाजिक असमानता रहेगी, तब तक आरक्षण एक महत्वपूर्ण सामाजिक नीति बनी रहेगी।
- आरक्षण को समानता लाने के लिए प्रयोग करना चाहिए, न कि समाज को विभाजित करने के लिए।